Saturday, November 6, 2010
प्रेसिडेंट ओबामा हिंदुस्तान आ गए कल। जब उनका इलेक्शन हुआ था तो अमरीका में ही था। उनका भाषण उस वक़्त बहोत उत्साहित करने वाला था। अब यहाँ अमरीका के हित में व्यापार वर्धन के लिए आये हैं। जैसा भारतीय चरित्र है, ज़्यादातर लोग उनका स्वागत करने में उत्साहित हैं और अचरज से उनके लवाजमे को देख रहे हैं। मुझे तो एक बातलगती है, ऐसा क्या नेता जो डर के मारे हजारों की फौज के घेरे में घुमने निकले। वीर सांघवी ने सही लिखा है के यह उम्मीद करना की वो पकिस्तान को कोई डाट लगाएं गे या हिन्दुस्तान को पाकिस्तान जितनी सैनिक सहायता दे जायेंगे सोचना गलत होगा। वोह हिंदुस्तान में अमरीका के लिए एक तरह से मदद मागने आये हैं - व्यापार इस तरह बढाने की उनके देश में रोज़गार बढे। अब यह हमारी अक्ल पर मुनस्सर है के हम अपना भी फायदा कर लेते हैं या उनके माया जाल में फँस कर पहले जैसे अंग्रेजों ने किया था के व्यापार की इजाज़त देते देते देश की आजादी ही सौंप बैठे। डीआर डी ओ के लिए होने वाले समझौते में जो शर्ते रक्खी जा रही हैं - एक टी वी चैनल ने मसौदा दिखाया था - जिसके तहत डिफेन्स मंत्रालय में अमरीकी अफसर बैठेंगे नज़र रखने के लिए यह तो उसी तरह की बात होगी जैसे अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं के यहाँ अँगरेज़ रेसिडेंट कमिश्नर रखे थे और बाद में तरह तरह के कानून बना कर अंत में राज करने लगे। मेरे ख्याल से भारत सरकार यू एन ओ में परमानेंट सीट के चक्कर में बहोत ढील न दे तो ही भला होगा। चीन का उदहारण सामने है । किसी ने क्या बिगाड़ लिया उनका। हमको भी अपना हित ध्यान में रख कर ही कुछ करना चैहिये - बहोत ज्यादा भरोसा या दरियादिली बेवकूफी होगी।
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